रविन्द्रनाथ
टैगोर का जन्म 7 मई, वर्ष 1861 को कलकत्ता के जोड़ासांको के इलाके में हुआ
था| रविन्द्र नाथ का बचपन बहुत अनुशासन में बीता था| उन्हें बाहर की
दुनिया को देखना बहुत ही अच्छा लगता था| वे जब भी अपने पिता के साथ घर से
बाहर जाते तो बाहरी दुनिया की प्राकृतिक सुन्दरता को देखते ही रह जाते|
उन्हें घर से अकेले बाहर जाने नहीं दिया जाता था| जब रविन्द्र थोड़े बड़े
हुए तो उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिए एक शिक्षक नियुक्त किया| जब
रविन्द्र थोड़े और बड़े हुए तो उनका दाखिला ओरियंटल सेमिनरी नामक पाठशाला
में कराया गया| इस पाठशाला में बच्चों को बंगाली भाषा की शिक्षा दी जाती
थी| रवीन्द्र को पढने में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी| लेकिन उनका दिमाग
बहुत तेज था| वे हमेशा सोचने में व्यस्त रहते थे|| रवीन्द्र क्लास में
चुपचाप बैठे रहते थे और उनके दिमाग में तरह तरह की बाते उठती रहती थी|
रवीन्द्र
ने केवल सात वर्ष की उम्र में ही बंगाली भाषा में कविता लिखकर चमत्कार सा
कर दिया| जब घर के सभी लोगों ने यह कविता सुनी तो घर के सभी सदस्यों ने
रवीन्द्र की काफी प्रशंसा की| रवीन्द्र के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ ने एक
मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया| वर्ष 1877 में इस पत्रिका का पहला अंक
प्रकाश में आया| उसमे रविन्द्र का नाम सम्पादकों की सूची में था| इस
पत्रिका में रवीन्द्र ने मेघनाथवध की समीक्षा लिखी थी| यह उनके जीवन का
पहला गध था| इसके बाद रवीन्द्र ने 'कवि कहानी' नामक एक कविता लिखी| इस
कविता का प्रकाशन भारती में हुआ था| इसके बाद इसी कविता के टाइटल से एक
किताब प्रकाशित हुई| इस किताब ने रविन्द्र की लोकप्रियता को एक नई दिशा दी|
उनका नाम एक अच्छे लेखक, कवि, सम्पादक, आलोचक और एक अच्छे व्यक्तित्व में
दर्ज हो गया|
जब
रवीन्द्र 17 वर्ष के हुए तो वह लन्दन उच्चशिक्षा के लिए चले गए| वहां
उन्होंने वायरन शहर में एक स्कुल में प्रवेश लिया| एक वर्ष तक वह लन्दन में
ही पढ़ते रहें| लेकिन जब उनके बड़े भाई विलायत में किसी काम के सिलसिले
में आये थे तो जब उनका काम खत्म हुआ तो रवीन्द्र अपने भाई के साथ वापस भारत
लौट गए| वहां उन्होंने 'भग्न हृदय' के नाम से एक कविता लिखी थी| इस कविता
का प्रकाशन भारत में हुआ था| इसके बाद रवीन्द्र ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं
देखा| उनकी कलम चलती रही और लोकप्रियता बढ़ती गयी| वे पूरी तरह से काव्य
रचना में रम गए
लन्दन में उन्होंने वाल्मीकि प्रतिभा नामक नाटक की रचना की| इस नाटक का
मंचन उनके घर में ही हुआ था| इसे बहुत से गणमान्य व्यक्तियों, लेखकों और
साहित्यकारों ने देखा था| वाल्मीकि प्रतिभा की सफलता से उत्साहित होकर
उन्होंने काल्मृग्या नामक संगीत काव्य की रचना की| उन्हें कविताओं से बेहद
लगाव था| वे चॉक से स्लेट पर कवितायें लिखते और यदि उनमे कोई कमी होती तो
मिटाकर उन्हें दुबारा लिखते| बाद में वे इन रचनाओं को कागज़ पर उतारते|
लिखने के साथ साथ वह नदियों के किनारे जाते, जंगलों में जाते और पहाड़ो पर
भी जाते थे| वहां की प्राकृतिक सुन्दरता को देखकर उनका मन लट्टू की तरह
नाचने लगता| रवीन्द्र जी गंगा के किनारे एक झोपडी में कई दिनों तक रहे|
यहाँ उन्होंने कई गीतों का सृजन किया|
वर्ष 1884 में रवीन्द्र का विवाह मृणा लिनी देवी के साथ हुआ| मृणा लिनी ने
उनकी लेखन प्रतिभा को और होसला दिया| विवाह के बाद रवीन्द्र ने 'छवि ओ गान'
नामक की पुस्तक की रचना की| इस पुस्तक में गरीबी से जुडी विभिन्न
परिस्थियों का उल्लेख था| रविन्द्र जी ने पुस्तकों के अलावा निबन्ध आत्म
कथाएं और नृत्य नाटिकाओं की रचना भी की थी| गीतांजली उनकी सबसे प्रिय
पुस्तक है यह उनका एक ऐसा काव्य ग्रन्थ है जिसे लिखने में उन्हें कई वर्ष
लग गए थे| यह दुनिया की सबसे श्रेष्ठतम काव्य कृति साबित हुई| रवीन्द्र नाथ
जी को उनकी इस कृति के लिए वर्ष 1913 में नोबेल पुरूस्कार से नवाजा गया|
गितांजिली में जीवन की कड़वी सच्चाइयों को रहस्यमय तरीके से प्रस्तुत किया
गया है|
नोबेल
पुरूस्कार मिलने के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर की गणना अंतर्राष्टीय
ख्यातिप्राप्त कवियों, विचारकों और दार्शानिकों में की जाने लगी| पूरी
दुनिया से उनके पास बधाई के संदेश आने लगे| रवीन्द्र जी की एक महान देशभक्त
भी थे वे गांधी जी से बहुत प्रभावित हुए थे| रवीन्द्र नाथ जी गांधी जी के
सत्य और अहिंसा में विश्वास रखते थे| जन गण मन अधिनायक जय हो भारत भाग्य
विधाता नमक राष्टीय गान रवीन्द्र जी ने ही लिखा था| आगे चलकर इस गीत को देश
का राष्टीय गीत घोषित कर दिया गया|
रवीन्द्र जी ने अपनी जिंदगी में जितनी खुशिया देखीं उससे कहीं ज्यादा गम
झेले| रविन्द्र जब केवल 41 वर्ष के थे तभी उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी थी|
कुछ समय बाद उनके बच्चों की भी मृत्यु हो गयी थी। उन्होंने अपने जीवन में
अपने 2 बच्चों, पत्नी, पिता और एक नाती की मृत्यु देखी थी| रविन्द्र जी
अपनी पत्नी, दो बेटी, एक बेटा, और एक जवान नाती के मृत्यु का गम झेलते रहे|
अपने बच्चों की मृत्यु से उनके मन को बहुत गहरा धक्का लगा था| अब रविन्द्र
जी को अकेलापन खाए जा रहा था| उनका शरीर बहुत कमजोर गया था| कुछ समय बाद
वर्ष 1941 को उनका स्वर्गवास हो गया| उनके देहांत पर जिधर देखो उधर शोक का
माहोल था| शान्ति निकेतन में हजारों लोगों ने उन्हें भावभीनी श्र्न्धाजिली
अर्पित की| आज रविन्द्र जी हमारे बीच न होकर भी एक महान कवि के रूप में अमर
हैं|
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